Sunday, October 30, 2011

utar jata hai

jaise chadhti hui nadi ka jwaar utar jata hai .
kaisaa bhi ho nasha aikdin yaar utar jata hai.
maana maine lafz chhuri se bhi paina hota hai,
lekin har chaakoo ka dekha dhaar utar jata hai.
bade safine doob gaye par aik aadmi dariyaa men,
ik tinke ka liye sahaara paar utar jata hai.
tanhaa yun to bojh gamon ka bahut bada lagta hai,
lekin paakar saath kisi ka bhaar utar jata hai.
bajti hui surili veena bahut sukun deti hai,
mushkil to tab hoti hai jab taar utar jata hai.
chadhta nahin dubaara chaahe kitni bhi koshish ho ,
shakhs kisi ki najron se ik baar utar jata hai.

Wednesday, September 29, 2010

A voice of nation
Love is god,god is one.
So I tell you done is done .
Heart is Temple ,Faith is pray ,
to get the Heaven , kind is way .
Life means of eat and drink ,
To write history in tear's ink ,
Please get a golden chance ,
Come on here sing and dance .
Flage wants to something say,
What means of Freedom day .
Can you give a sacrifice ?
Make  yourself very nice .
environment
 Do not mix the black poision/
day and night in the fresh air .
Do not make it dificult to breath/
of breath's pair .
From that day when injured /
ozone's thick layer,
Every body realise the moon light too/
as june's hot room there.
Earth quake,Draught,Flood and /
the birth of new dieases,
Coming day by day towards/
villages and cities's sphere.
If desert will create by the /
cutting of green jungle regularly,
What will be the result of us ?
think a little care ,
If civilization of machine /
could not be stopped now /
certainly will create the dooms day's/
calimity fair,
O man ! if you will not cautious /
onthe bomb,
Grave yard or cremation ground/
will be visible every where 
.


Tuesday, September 21, 2010

       महा कवि तुलसीदास जी की 
        सामाजिक द्रष्टि 








   सम्प्रति देश के बिगड़ते हुए सामाजिक परिवेश 
के सन्दर्भ में महा कवि तुलसीदास जी की महान कृति
राम चरित मानस की प्रासंगिकता मनीषियों के बीच 
वाद -विवाद का विषय प्रस्तुत करती है .   वैसे तो








महाकवि की अनेक कृतियाँ हैं परन्तु उनकी 
कालजयी  कृति ' राम चरित्र मानस ' है जिसकी 
चौपाइयों का घर -घर पाठ होता है   अधिकाँश बुद्धिजीवी  
 महा कवि तुलसी दास








जी को समाज सुधारक मानते हैं परन्तु  कतिपय लोग
 ऐसे भी हैं जो उन पर समाज को पथ भ्रष्ट करने का 
आरोप लगाते हुए उन्हें दोयम दर्जे का कवि सिद्ध 
करने में लगे हैं .वस्तुतः 'राम चरित मानस ' को समझने 
के लिए उस काल खंड और दबाबों का अध्ययन 
करना समीचीन होगा जिनके मध्य रामायण रची गयी .








           जिस समय राम चरित मानस की रचना 
हुई ,उस समय हिन्दू धर्म दो सम्प्रदाय  में बंटा
हुआ था .शैव और वैष्णव के झगडे थे .देश में मुगलों 
का साम्राज्य था .इस्लाम धर्म का दबदबा था .भाषाई 
विवाद थे .विषम परिस्थितियाँ थीं .अशिक्षा ,अंध विश्वास








और आत्म बल के अभाव के चलते हिन्दू समाज 
को एक सूत्र में पिरोना आसान काम नहीं था .कहा जाता है की प्रारम्भ में तुलसीदास जी
ने संस्कृत भाषा में रचना शुरू की तो रात में वह जिसे 
रचते थे ,सुबह होते ही वह अंतर्ध्यान हो जाती थी .वह बहुत 
परेशान थे .तब एक दिन उन्हें सपने में भगवान् शंकर 
का आदेश मिला ," अयोध्या जाओ ,हिंदी में काव्य रचना 
करो ." सपने में मिलने वाला आदेश संभवतः उनकी आत्मा 
के ही बोल थे .दूसरे शब्दों में कहें तो उनसे पहले महर्षि वाल्मीकि
 संस्कृत में रामायण रच चुके थे ,तब हिंदी के उद्धार
 के लिए यह परम आवश्यक था की कविता कर्म हिंदी में 
किया जाय.    राम चरित मानस की रचना के समय तुलसी दास
जी का विरोध करने वालों की संख्या अत्यधिक थी .यहाँ 
तक की उनकी इस महान करती को नष्ट करने के अनेकानेक 
प्रयास किये गए  तब उन्हें यह घोषणा करना पडी की 'मानस '
की  रचना बिना किसी राग -द्वेष के की गई है . इसीलिये 
उन्होंने इस कृति में सभी की विशेषतः दुष्ट जनों एवं अन्य 
धार्मिक गुरुओं ,आचार्यों ,कवियों आदि की वंदना की है .
ताकि वे उनके रचना कर्म में व्यवधान उत्पन्न न करें .
यह निर्विवाद है की गोस्वामी जी को 'मानस 'की रचना 
अनेक मानसिक एवं सामाजिक दबाबों के चलते करना पडी .    
   इतना सब होने पर भी उन्होंने 'राम चरित 




मानस ' में सामाजिक चेतना ,सामाजिक विकास एवं 
सामाजिक संरचना हेतु अपना अप्रतिम योगदान दिया .
इस प्रकार समाज को प्रदत्त यह ग्रन्थ तुलसीदास जी की बहुत 
बड़ी एवं महत्वपूर्ण उपलब्धि है .जिसमें समाज के लिए 
सर्वोच्च  कोटि के आदर्श प्रस्तुत किये गए हैं .परन्तु समाज का यह 
दुर्भाग्य है की महाकवि द्वारा समाज को महान जीवन द्रष्टि  ,
दिशा निर्धेश दिए जाने के बावजूद उन्हें समाज का पथ भ्रष्टक
कहा गया .
                     इसके पीछे किसकी कुत्सित एवं राजनैतिक चाल 

है ,यह सब यहाँ चर्चा का विषय नहीं है वरन जिस कारण से उन 
पर यह आरोप मढा जाता है वह उनके द्वारा लिखित यह चौपाई 
है .:-
'ढोल गवांर सूद्र पशु नारी ,सकल ताड़ना के अधिकारी .'
         इस चौपाई ने समाज के कुछ बुद्धिजीवियों को बौखला 
दिया और जिसके लिए तुलसीदास जी को दण्डित करने हेतु उनके 
द्वारा  'समाज के पथ भ्रष्टक तुलसी दास ' कह कर आरोपित करने 
का कुत्सित प्रयास किया गया .
  उपर्युक्त   चौपाई को पढने पर साधारण अर्थ 





निकलता है की ढोल ,गंवार ,सूद्र ,पशु और नारी प्रताड़ना 
के अधिकारी होते हैं .इसके लिए कवि की जितनी भी भर्त्सना 
की जाए कम होगी .तथा उसका सामाजिक बहिष्कार  उचित 
दंड होगा .परन्तु किसी भी महा कवि या विद्वान लेखक की 
द्रष्टि इतनी संकीर्ण या तुच्छ नहीं हो सकती . उसके द्वारा कहे 
गए शब्दों के मर्म को समझे बिना अर्थ को नहीं समझा जा 
सकता है . कवि का ठीक मूल्यांकन नहीं किया जा सकता .    
        कोई भी रचनाकार साधारण बात को कहने 




के लिए काव्य की रचना नहीं करता  जो साधारण है उसे 
काव्य में कहने का औचित्य ही क्या  ? जो दिखता है 
जो समझ में आता है उससे परे अन्तर्निहित बात का 
और उसके छिपे हुए पहलुओं को सबके सामने लाना 
लेखक ,कवि और पत्रकार का धर्म और कर्म होता है .
कवि का काम गागरमें सागर भरना होता है .वह कभी 
एक शब्द के कई अर्थ प्रयोग में लाता है .औरकभी एक
ही वाक्य से अनेक अर्थ .उदाहरणार्थ -
'सुवरन को खोजत फिरत कवि ,व्यभिचारी चोर .'
यहाँ एक ही शब्द 'सुवरन' (कवि  अच्छे द्रश्यों /शब्द , 
विषयी सुन्दर रूप ,चोर स्वर्ण ) से कवि ,व्यभिचारी और 
चोर का मतलब हल कर लिया गया है .अर्थात कवि 
कभी -कभी असाधारण बात कहने के  लिए साधारण 
बात का सहारा लेता है /ले सकता है .हजारों -हजार 
वर्षों से महापुरुष प्रायः साधारण वाक्यों द्वारा असाधारण 
बात   कहते आये हैं. महा राजा पृथ्वी राज चौहान का किस्सा 

जग जाहिर है .जब मोहम्मद गौरी ने उन्हें अंधा बना दिया ,
तब कविवर चंदवरदाई ने अपनी कविता की दो पंक्तिओं 
के  द्वारा उन्हें संकेत दिया -
' चार हाथ चौबीस गज अंगुल अष्ट प्रमान ,
ता ऊपर सुलतान है मत चूको चौहान '
               पंक्तियों का आशय समझने में उन्होने बिलकुल 
देर नहीं की ,इन्हें सुनते ही नेत्र हीन पृथ्वी राज चौहान ने 
शब्द भेदी बाण चला कर एक ही तीर से मोहम्मद गौरी 
का अंत कर दिया था .
                महा कवि तुलसी दास जी ने भी रामायण में इसी 
बात को दोहराया है .उन्होंने साधारण बात द्वारा असाधारण 
बात कही है .      'राम चरित मानस  में तुलसीदास जी 
ने  कहा है की उन्होंने रामायण की रचना 'स्वान्तः -
सुखाय 'की है .परन्तु ऐसा था क्या ? यदि स्वान्तः 
सुखाय ही उनका उद्देश्य होता तो वह मन ही मन
 काव्य दोहराते ,लिखने की आवश्यकता न होती
और न तब वह महान कृति समाज के सामने आती .
               रामायण के सारे प्रसंग जोड़ने वाले हैं तोड़ने 
वाले नहीं .जाति -पांति का भेद भाव तो कहीं द्रष्टिगोचर 
होता ही नहीं है .भीलनी शबरी के जूठे बेरों को भगवान् 
राम चन्द्र जी चाव पूर्वक खाते हैं .निषाद राज केवट को
 अपने गले लगाते हैं .बंदरों से सीता की खोज करवाते हैं .
शोषित सुग्रीव की रक्षा करते हैं . पेड़ पोधों को जीवित
 मानकर उनसे सीता का पता पूछते  हैं .भाई लक्ष्मण 
को रावण के पास ज्ञान प्राप्त करने भेजते हैं ,विभीषण को 
लंका का राज्य सौंप देते हैं .यह सब क्या महा कवि तुलसी 
दास जी की कुत्सित मानसिकता का द्योतक है ?  फिर उन्हें
पथभ्रष्टक  क्यों कहा जाये ? 
              उनके ऊपर कितने दबाब हैं ? सबल द्वारा जब



निर्बल पर हथिया उठाया जाता है तब यह चौपाई लिखी 
गई - ' ढोल गंवार सूद्र पशु नारी ,सकल ताड़ना के अधिकारी ' 
ये पंक्तियाँ प्रतिरक्षात्मक  हैं .जब तक इनकी सूक्ष्मता से 
व्याख्या नहीं की जायगी .तुलसी दास जी की सामाजिक 
द्रष्टि या उनकी काव्य रचना का उद्देश्य द्रष्टिगोचर नहीं हो 
सकता .वह व्यक्ति जो दुष्टों की वंदना महज इसलिए करता 
है की समाज को एक पारदर्शी  स्वच्छ निर्मल द्रष्टि के साथ 
अच्छी कृतिमिले वह विद्वानों से कृपा करने को कहता है क्यों की वह 


स्वंय को ज्ञानी नहीं मानता ,शास्त्र का ज्ञाता नहीं
 मानता ,शब्द कौशल नहीं जानता फिर भी जो
 कुछ कहा गया है उसको सही द्रष्टि से आकलन कर
 स्थान दिया जाए .
           तुलसी दास जी के इर्द -गिर्द का वातावरण
 बुंदेलखंड का वातावरण है .बांदा ,चित्रकूट ,राजापुर 
और निकटवर्ती क्षेत्र उन्हें प्रभावित करता है .वह यहाँ 
समाज में व्याप्त अव्यवस्थाओं ,कुरीतिओं को दूर करना
 चाहते थे .वह समाज के विकास में 'ढोल' ( मीडिया ) ,जो 
प्रचार का संकेतक है ,'गंवार 'अशिक्षा का द्योतक है ,'शूद्र'
 समाज का सबसे निचला दलित तबका है,' पशु ' के 
बिना  श्वेत  क्रान्ति संभव ही नहीं और 'नारी ' समाज की
 बुनियाद है ,आधारशिला है . इन सभी पाँचों तत्वों को ,
जिनकी हालत तत्समय दयनीय थी . 
अपने लेखन व सोच का विषय बनाना महा कवि


ने श्रेयस्कर माना  क्यों की इनके उद्धार के बिना 
समाज का सर्वोन्मुखी विकास संभव नहीं था .
         चूंकि तुलसीदास जी ने एक शब्द 'ताड़ना '
 का प्रयोग किया है जिसके द्वारा ही इन पाँचों तत्वों का 
शमन किया गया है .मनीषियों ने इसका अर्थ मारने ,
पीटने, दंड देने से लिया .फलतः चौपाई की व्याख्या गलत 
हो गई और समाज में गलत सन्देश प्रसारित हुआ .
        वस्तुतः 'ताड़ना 'शब्द बुन्देली भाषा 
में प्रयुक्त होता आया है .और इसका अर्थ है -देखना ,भांपना ,
देखभाल करना ,नजर रखना आदि .राम चरित मानस 
अनेक भाषाओं का सम्मिश्रण है ,परन्तु प्रयुक्त शब्द का 
अभिप्राय उसकी मूल भाषा के सन्दर्भ में लिया जाना 
अपेक्षित है .ग्रन्थ में अवधी ,उर्दू,ब्रज आदि भाषा का 
प्रयोग भी है .'ताड़ना 'शब्द बुन्देली भाषा का है .


          कवि का मानना था की समाज में परिवर्तन 
के लिए 'मीडिया ' (ढोल ) को शसक्त बनाने की 
आवश्यकता है इसलिए उस पर सतत नजर रखी
जाना चाहिए .अनपढ़ व्यक्ति (गंवार ) को शिक्षित 
किये बिना देश का विकास कठिन है .समाज को आगे 
बढाने के लिए दलित और शोषित वर्ग ( सूद्र ) की 
समुचित देखभाल आवश्यक है .चूंकि पशुयों की देख-
रेख ,उनके आहार -विहार पर ही श्वेत -क्रान्ति निर्भर 
करती है .इसलिए गोस्वामी जी पशुयों की गतिविधियों 
को भांपते रहने (ताड़ना ) की बात कहते हैं .
उनके अनुसार महिलायें (नारी ) भी ताड़ना की अधिकारी 
है क्योंकि जिस समाज में नारी की दशा ठीक और सम्मान -
जनक नहीं होगी ,उस समाज की केन्द्रीय शक्ति है.  नारी 
को दोयम दर्जा देकर नहीं रखा जा सकता .इसलिए नारी
 पर ध्यान देना समाज का पुनीत कर्त्तव्य है .इस प्रकार हम 
देखते हैं की 'ताड़ना 'का आशय विकास या उद्धार से है .

उनके अनुसार महिलायें (नारी ) भी ताड़ना की अधिकारी 
है क्योंकि जिस समाज में नारी की दशा ठीक और सम्मान -
जनक नहीं होगी ,उस समाज की केन्द्रीय शक्ति है.  नारी 
को दोयम दर्जा देकर नहीं रखा जा सकता .इसलिए नारी
 पर ध्यान देना समाज का पुनीत कर्त्तव्य है .इस प्रकार हम 
देखते हैं की 'ताड़ना 'का आशय विकास या उद्धार से है .
  जिस सन्दर्भ में इस चौपाई का प्रयोग 
हुआ है वह है समुद्र द्वारा रास्ता देने का अनुरोध 
न सुनना .क्रोधित होकर राम चन्द्र जी अपना 
धनुष -बाण उठा लेते हैं तब समुद्र अपने पक्ष 
में इस चौपाई का प्रयोग करता है . समुद्र में 
रास्ता बनाकरजाना विकास का प्रतीक है .समुद्र 
ज्ञान  का भी  प्रतीक है .लंका पर आक्रमण की 
तैयारी विकास का मार्ग प्रशस्त करने की तैयारी 
है,वह भी ज्ञान के समुद्र को जीतकर .
   समुद्र ही राम चन्द्र जी को बोध कराता 
है की 'ढोल ,गंवार,सूद्र ,पशु ,नारी  सकल ताड़ना के 
अधिकारी हैं .' अर्थात वह 'सकल 'शब्द का प्रयोग करता 
है .अभिप्राय है की किसी एक के द्वारा नहीं .पाँचों के 
उद्धार या विकास द्वारा ही ज्ञान के समुद्र में रास्ता बनाया 
जा सकता है .समुद्र पर क्रोधित होने से अच्छा है की इनका 
विकास किया जाए ,वरना इस प्रसंग में समुद्र स्वयं क्षमा 
मांग सकता था .इन पाँचों के बारे में कहने का क्या 
आशय था ? यहाँ तुलसीदास जी की सामाजिक द्रष्टि 
उजागर होती है की किसी दुर्बल व्यक्ति पर ध्यान देकर
 उन्हें दूर करना चाहिए .विकास के प्रमुख पांच 
घटक हैं .इनका सकल विकास होना चाहिए ,किसी
 एक का नहीं .   चौपाई में एक और शब्द का प्रयोग हुआ 

है 'अधिकारी ' . यह प्रयोग  मामूली नहीं है जैसा 
विद्वतजन 'योग्यता' के अर्थ में प्रयोग करते हैं .
'ताड़ना'  के 'अधिकारी '-दंड  पाने के योग्य हैं . किन्तु 
संदर्भित स्थान और प्रयक्ति में ऐसा अर्थ कदापि नहीं 
हो सकता क्यों की दंड आने का कोई अधिकार नहीं 
होता है .अधिकारी से तात्पर्य अधिकार रखने वाले से 
है .दंड देने का अधिकार तो हो सकता ,मारने का 
अधिकार हो सकता है ,पिटने का नहीं .शोषित होने 
का  अधिकार  कभी होता है क्या ? सही अर्थों में सकल 
तत्व ढोल (मीडिया ) ,गंवार (अशिक्षित ),सूद्र ( निचला 
 दलित वर्ग ) ,पशु ( दुर्बल पालतू जानवर ) और नारी 
( पीड़ित एवं शोषित महिला वर्ग ) अपने -अपने उद्धार 
का अधिकार रखते हैं .इनका अधिकार इनको मिलना 
चाहिए . कुछ आलोचक और विद्वानों ने 'ताड़ना '
का बुन्देली अर्थ समझे बिना ही ,उसे 'प्रताड़ना '
के करीब मानकर अर्थ का अनर्थ कर दिया ,जबकि
 हिंदी शब्द कोष में कहीं भी 'ताड़ना ' का अर्थ 
'प्रताड़ना ' नहीं दिया गया है .उर्दू में कहा गया 
है की ' नुक्ते के हेर फेर में खुदा जुदा हो गया ' यहाँ 
यह कहावत पूरी तरह चरितार्थ होती है .तुलसी 
दास जी का ह्रदय कितना कोमल था ,यह इस पंक्ति 
से जाहिर है .
' मर्म वचन जब सीता बोला ,
पीपल पात सरिस मन डोला '
             समूर्ण 'राम चरित मानस ' में कहीं भी ऐसा 
प्रसंग नहीं जहां मानवता या मानव मूल्यों  की 
स्थापना में कोताही बरती गई हो .यही कारण है
 की समुद्र की बातें सुनकर श्री राम चन्द्र जी मुस्कराने 
लगते हैं :
' सुनत विनीत वचन अति कह कृपालु  मुस्काई '.
अस्तु ,महा कवि तुलसी दास जी ने सामाजिक 
मर्दायों का पालन  करते हुए ,कुप्रथाओं को तोड़ने
 का प्रयास किया तथा आदर्श राज धर्म ,भक्ति ,त्याग ,
सदाचार  की शिक्षा देने वाला ग्रन्थ रचा है ,विद्वेष -
मूलक नहीं .


Saturday, September 11, 2010


राम चरित्र मानस में महा कवि तुलसी दास 
जी का दलित प्रेम    महा कवि तुलसी दास जी पर अनेक  विद्वानों ने दलित विरोधी होने का आरोप लगाया है 
और सबूत के तौर पर उनकी एक चौपाई
 - 'पूजिय विप्र सील गुन हीना ,सूद्र न गुन गन ज्ञान 
प्रवीना ' को प्रस्तुत करते हैं 
कहते हैं - नुक्ते के हेर फेर में खुदा जुदा हो गया .
सन्दर्भों से काट कर उपरोक्त चौपाई में महा 
कवि तुलसी दास जी प्रथम द्रष्टया दलित विरोधी
 प्रतीत होते हैं .परन्तु गहन विवेचना  करने 
पर और सन्दर्भों से जोड़ने पर तुलसी दास जी
 दोष मुक्त हो जाते हैं .
तथा कथित चौपाई श्री राम चन्द्र जी द्वारा उस
 समय कही गई है जब वह सीता जी की खोज 
करते जंगल में भटक रहे होते हैं .उन्हें राह में
 'जटाऊ 'नाम का गीध घायलावस्था में मिलता 
है ,जो उन्हें रावण की सारी करतूत विस्तार से
बताता है . वहअपनेप्राण श्री राम चन्द्र जी 
की गोद में त्याग देता है .श्री राम चन्द्र जी
 अपने हाथों से उसका दाह -संस्कार करते हैं .
'तेहि क्रिया जथोचित निज कर कीन्ही राम '. 
 दाह -क्रिया करने के बाद श्री राम चन्द्र जी 
अनुज लक्ष्मण जी के साथ आगे जंगल में बढ़ते 
हैं तो उन्हें 'कबंध 'नामक राक्षस मिलता है जो
 दुर्वासा  ऋषि के शाप के कारण गन्धर्व योनि को 
प्राप्त हुआ था .श्री राम चन्द्र जी ने उसे माकर शाप
 मुक्त किया .इस गन्धर्व से ही राम चन्द्र जी ने
कहा था -" सुनु गन्धर्व कहहुं मैं तोही ,मोहि न सोहाई
 ब्रम्ह कुल द्रोही .
यहाँ ब्रह्म कुल द्रोही से आशय उस व्यक्ति से है जो 
ब्राह्मण कुल में तो जन्म लेता है परन्तु अपने कुल 
के विरुद्ध आचरण करता है अर्थात अपने कुल की
 मर्यादा के विरुद्ध क्रिया -कलापों में संलग्न रहता 
है .यहाँ 'ब्रह्म कुल द्रोही ' का अर्थ अन्य किसी जाती
 के व्यक्ति से नहीं है .जिस प्रकार ' देश द्रोही '
वाही व्यक्ति होता है जो अपने देश से द्रोह करता है
 अन्य कोई व्यक्ति नहीं .
      यहाँ यह बात भी ध्यान देने योग्य है की 'गन्धर्व '
 से ' ब्रह्म कुल द्रोही ' की चर्चा करना 
अचानक ही नहीं है .जटाऊ ने ब्राह्मण कुल में पैदा हुए
 रावण की करतूत श्री राम चन्द्र जी को 
बताई थी अतः यहाँ ' ब्रह्म कुल द्रोही ' से आशय रावण ही
 है . श्री राम चन्द्र जी आगे कहते 
हैं :-" मन क्रम वचन कपट तजि जो कर भूसर सेव ,
मोहि समेत विरंचि सिव बस ताकें सब देव".
       श्री राम जी कहते हैं - जो 'भूदेव ' ऐसे ब्राह्मण के
 सेवा मन क्रम वचन से कपट त्याग कर 
करता है उसे मैं ,ब्रह्मा और सिव सहित सभी देवता ताकते
 रहते हैं अर्थात उसकी किसी भी प्रकार 
से मदद नहीं करते हैं .
        ऐसा व्यक्ति या भूदेव जो शील और गुणों से हीन
 ब्राह्मण की तो पूजा करता है परन्तु 
शूद्र को ' गुन गनों' से युक्त ज्ञान में प्रवीण होने पर भी
 सम्मान नहीं देता है ,शाप से युक्त 
कठोर वचन कहे जाने योग्य दीन व्यक्ति है . ऐसा संतों ने कहा है :-
' सापत ताड़त परुष कहंता ,विप्र पूज्य अस गावहिं संता ' 
पूजिय विप्र सील गुन हीना ,सूद्र न गुन गन ज्ञान प्रवीना '
       इस प्रकार हम देखते हैं की सन्दर्भों से काट कर चौपाई
 दलित विरोधी नजर आती है .
यदि तुलसी दास जी दलित विरोधी होते तो ऐसा नहीं लिखते :-
' भगतिवंत अति नीचउ प्रानी ,मोहि प्राण प्रिय असी मम बानी '
      मुझे भक्ति युक्त नीच प्राणी भी प्राणों के सामान प्रिय हैं .यह
 मेरी घोषणा है .तुलसी दास
जी भविष्य की उद्घोषणा करते हैं की :- 
'सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं गयाना ,मेलि जनेउ लेहिं कुदाना . '
अर्थात सूद्र लोग ब्राह्मण की तरह उपदेश करेंगे तथा ब्राह्मणों 
से मिलकर ऊंचाइयों पर 
पहुंचेंगे .सूद्र ब्राह्मणों से कहेंगे की वह उनसे छोटे हैं अर्थात अपने
 को हेय मानेंगे तब 
ब्राह्मण उन्हें आँख से डांट कर कहेंगे की वह भी ब्राह्मण के
 सामान ब्रह्मको
जानने वाले हैं 
'बादहि  सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह से कछु घाटि ,
जाने ब्रह्म सो विप्रवर आँख देखावहिं डाटी.
इस प्रकार हम देखते हैं की श्री तुलसी दास जी ने दलितों
 के प्रति प्रेम -भाव ही दर्शाया है 
न की उनका विरोध या अहित किया है .शबरी के बेर श्री 
रामचंद्र जी द्वारा खाना ,निषाद 
-गुह और केवट को अपने गले लगाना कपट पूर्ण नहीं था .
इन सब का श्री राम चन्द्र जी 
ने हमेशा सम्मान ही किया है .नाव से उतरने पर केवट को
 अपनी पत्नी की अंगूठी  दे 
डाली
श्रम 
का शोषण नहीं किया .निषाद को अपने पास बिठाते हैं ;-
'सहज सनेह विवस रघुराई ,पूछी कुशल निकट बैठाई .'
आगे देखें :- 'आपु लखन पहिं बैठउ जाई ,कटि भाथी सर चाप चढ़ाई .'
 इतने नजदीक बैठाना क्या विरोध की स्थिति में संभव था ?
' बचन किरातन्ह के सुनत ,जिमि पितु बालक बैन '.
अर्थात श्री राम चन्द्र जी किरातों के वचन ऐसे सुन रहे हैं
 जैसे कोई पिटा अपने बच्चों के बचन 
सुनता है .--'स्व पाच सबर खस जमन जड़ पांवर कोल किरात .
                रामु कहत पावन परम हॉट भुवन विख्यात ' 
यानि मूर्ख ,और पामर ,चांडाल ,शबर ,खस ,यवन कोल 
और किरात भी राम का नाम लेकर 
परम पवित्र होकर त्रिभुवन में विख्यात हो जाते हैं .
इस प्रकार हम पाते हैं की राम चरित मानस में महा कवि
 तुलसी दास जी ने दलितों के प्रति 
अपना प्रेम ही प्रकट किया है .उन्हें दलित विरोधी कहना 
चाँद पर थूकने के समान है .
                यदि महा कवि तुलसी दास जी को समझना है 
तो उनकी चौपाइयों के 
समुद्र में गहरे तक गोता लगाना पडेगा तभी कीमती अर्थ
 प्राप्त हो सकते हैं वरना -
'जाकी रही भावना जैसी ,प्रभु मूरत देखि तिन तैसी ' वाली
 बात ही चरित्रार्थ होती है .

   महा कवि तुलसी दास जी पर अनेक  विद्वानों ने दलित विरोधी होने का आरोप लगाया है 
और सबूत के तौर पर उनकी एक चौपाई
 - 'पूजिय विप्र सील गुन हीना ,सूद्र न गुन गन ज्ञान 
प्रवीना ' को प्रस्तुत करते हैं 
कहते हैं - नुक्ते के हेर फेर में खुदा जुदा हो गया .
सन्दर्भों से काट कर उपरोक्त चौपाई में महा 
कवि तुलसी दास जी प्रथम द्रष्टया दलित विरोधी
 प्रतीत होते हैं .परन्तु गहन विवेचना  करने 
पर और सन्दर्भों से जोड़ने पर तुलसी दास जी
 दोष मुक्त हो जाते हैं .
तथा कथित चौपाई श्री राम चन्द्र जी द्वारा उस
 समय कही गई है जब वह सीता जी की खोज 
करते जंगल में भटक रहे होते हैं .उन्हें राह में
 'जटाऊ 'नाम का गीध घायलावस्था में मिलता 
है ,जो उन्हें रावण की सारी करतूत विस्तार से
बताता है . वहअपनेप्राण श्री राम चन्द्र जी 
की गोद में त्याग देता है .श्री राम चन्द्र जी
 अपने हाथों से उसका दाह -संस्कार करते हैं .
'तेहि क्रिया जथोचित निज कर कीन्ही राम '. 
 दाह -क्रिया करने के बाद श्री राम चन्द्र जी 
अनुज लक्ष्मण जी के साथ आगे जंगल में बढ़ते 
हैं तो उन्हें 'कबंध 'नामक राक्षस मिलता है जो
 दुर्वासा  ऋषि के शाप के कारण गन्धर्व योनि को 
प्राप्त हुआ था .श्री राम चन्द्र जी ने उसे माकर शाप
 मुक्त किया .इस गन्धर्व से ही राम चन्द्र जी ने
कहा था -" सुनु गन्धर्व कहहुं मैं तोही ,मोहि न सोहाई
 ब्रम्ह कुल द्रोही .
यहाँ ब्रह्म कुल द्रोही से आशय उस व्यक्ति से है जो 
ब्राह्मण कुल में तो जन्म लेता है परन्तु अपने कुल 
के विरुद्ध आचरण करता है अर्थात अपने कुल की
 मर्यादा के विरुद्ध क्रिया -कलापों में संलग्न रहता 
है .यहाँ 'ब्रह्म कुल द्रोही ' का अर्थ अन्य किसी जाती
 के व्यक्ति से नहीं है .जिस प्रकार ' देश द्रोही '
वाही व्यक्ति होता है जो अपने देश से द्रोह करता है
 अन्य कोई व्यक्ति नहीं .
      यहाँ यह बात भी ध्यान देने योग्य है की 'गन्धर्व '
 से ' ब्रह्म कुल द्रोही ' की चर्चा करना 
अचानक ही नहीं है .जटाऊ ने ब्राह्मण कुल में पैदा हुए
 रावण की करतूत श्री राम चन्द्र जी को 
बताई थी अतः यहाँ ' ब्रह्म कुल द्रोही ' से आशय रावण ही
 है . श्री राम चन्द्र जी आगे कहते 
हैं :-" मन क्रम वचन कपट तजि जो कर भूसर सेव ,
मोहि समेत विरंचि सिव बस ताकें सब देव".
       श्री राम जी कहते हैं - जो 'भूदेव ' ऐसे ब्राह्मण के
 सेवा मन क्रम वचन से कपट त्याग कर 
करता है उसे मैं ,ब्रह्मा और सिव सहित सभी देवता ताकते
 रहते हैं अर्थात उसकी किसी भी प्रकार 
से मदद नहीं करते हैं .
        ऐसा व्यक्ति या भूदेव जो शील और गुणों से हीन
 ब्राह्मण की तो पूजा करता है परन्तु 
शूद्र को ' गुन गनों' से युक्त ज्ञान में प्रवीण होने पर भी
 सम्मान नहीं देता है ,शाप से युक्त 
कठोर वचन कहे जाने योग्य दीन व्यक्ति है . ऐसा संतों ने कहा है :-
' सापत ताड़त परुष कहंता ,विप्र पूज्य अस गावहिं संता ' 
पूजिय विप्र सील गुन हीना ,सूद्र न गुन गन ज्ञान प्रवीना '
       इस प्रकार हम देखते हैं की सन्दर्भों से काट कर चौपाई
 दलित विरोधी नजर आती है .
यदि तुलसी दास जी दलित विरोधी होते तो ऐसा नहीं लिखते :-
' भगतिवंत अति नीचउ प्रानी ,मोहि प्राण प्रिय असी मम बानी '
      मुझे भक्ति युक्त नीच प्राणी भी प्राणों के सामान प्रिय हैं .यह
 मेरी घोषणा है .तुलसी दास
जी भविष्य की उद्घोषणा करते हैं की :- 
'सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं गयाना ,मेलि जनेउ लेहिं कुदाना . '
अर्थात सूद्र लोग ब्राह्मण की तरह उपदेश करेंगे तथा ब्राह्मणों 
से मिलकर ऊंचाइयों पर 
पहुंचेंगे .सूद्र ब्राह्मणों से कहेंगे की वह उनसे छोटे हैं अर्थात अपने
 को हेय मानेंगे तब 
ब्राह्मण उन्हें आँख से डांट कर कहेंगे की वह भी ब्राह्मण के
 सामान ब्रह्मको
जानने वाले हैं 
'बादहि  सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह से कछु घाटि ,
जाने ब्रह्म सो विप्रवर आँख देखावहिं डाटी.
इस प्रकार हम देखते हैं की श्री तुलसी दास जी ने दलितों
 के प्रति प्रेम -भाव ही दर्शाया है 
न की उनका विरोध या अहित किया है .शबरी के बेर श्री 
रामचंद्र जी द्वारा खाना ,निषाद 
-गुह और केवट को अपने गले लगाना कपट पूर्ण नहीं था .
इन सब का श्री राम चन्द्र जी 
ने हमेशा सम्मान ही किया है .नाव से उतरने पर केवट को
 अपनी पत्नी की अंगूठी  दे 
डाली
श्रम 
का शोषण नहीं किया .निषाद को अपने पास बिठाते हैं ;-
'सहज सनेह विवस रघुराई ,पूछी कुशल निकट बैठाई .'
आगे देखें :- 'आपु लखन पहिं बैठउ जाई ,कटि भाथी सर चाप चढ़ाई .'
 इतने नजदीक बैठाना क्या विरोध की स्थिति में संभव था ?
' बचन किरातन्ह के सुनत ,जिमि पितु बालक बैन '.
अर्थात श्री राम चन्द्र जी किरातों के वचन ऐसे सुन रहे हैं
 जैसे कोई पिटा अपने बच्चों के बचन 
सुनता है .--'स्व पाच सबर खस जमन जड़ पांवर कोल किरात .
                रामु कहत पावन परम हॉट भुवन विख्यात ' 
यानि मूर्ख ,और पामर ,चांडाल ,शबर ,खस ,यवन कोल 
और किरात भी राम का नाम लेकर 
परम पवित्र होकर त्रिभुवन में विख्यात हो जाते हैं .
इस प्रकार हम पाते हैं की राम चरित मानस में महा कवि
 तुलसी दास जी ने दलितों के प्रति 
अपना प्रेम ही प्रकट किया है .उन्हें दलित विरोधी कहना 
चाँद पर थूकने के समान है .
                यदि महा कवि तुलसी दास जी को समझना है 
तो उनकी चौपाइयों के 
समुद्र में गहरे तक गोता लगाना पडेगा तभी कीमती अर्थ
 प्राप्त हो सकते हैं वरना -
'जाकी रही भावना जैसी ,प्रभु मूरत देखि तिन तैसी ' वाली
 बात ही चरित्रार्थ होती है .