Tuesday, September 21, 2010

       महा कवि तुलसीदास जी की 
        सामाजिक द्रष्टि 








   सम्प्रति देश के बिगड़ते हुए सामाजिक परिवेश 
के सन्दर्भ में महा कवि तुलसीदास जी की महान कृति
राम चरित मानस की प्रासंगिकता मनीषियों के बीच 
वाद -विवाद का विषय प्रस्तुत करती है .   वैसे तो








महाकवि की अनेक कृतियाँ हैं परन्तु उनकी 
कालजयी  कृति ' राम चरित्र मानस ' है जिसकी 
चौपाइयों का घर -घर पाठ होता है   अधिकाँश बुद्धिजीवी  
 महा कवि तुलसी दास








जी को समाज सुधारक मानते हैं परन्तु  कतिपय लोग
 ऐसे भी हैं जो उन पर समाज को पथ भ्रष्ट करने का 
आरोप लगाते हुए उन्हें दोयम दर्जे का कवि सिद्ध 
करने में लगे हैं .वस्तुतः 'राम चरित मानस ' को समझने 
के लिए उस काल खंड और दबाबों का अध्ययन 
करना समीचीन होगा जिनके मध्य रामायण रची गयी .








           जिस समय राम चरित मानस की रचना 
हुई ,उस समय हिन्दू धर्म दो सम्प्रदाय  में बंटा
हुआ था .शैव और वैष्णव के झगडे थे .देश में मुगलों 
का साम्राज्य था .इस्लाम धर्म का दबदबा था .भाषाई 
विवाद थे .विषम परिस्थितियाँ थीं .अशिक्षा ,अंध विश्वास








और आत्म बल के अभाव के चलते हिन्दू समाज 
को एक सूत्र में पिरोना आसान काम नहीं था .कहा जाता है की प्रारम्भ में तुलसीदास जी
ने संस्कृत भाषा में रचना शुरू की तो रात में वह जिसे 
रचते थे ,सुबह होते ही वह अंतर्ध्यान हो जाती थी .वह बहुत 
परेशान थे .तब एक दिन उन्हें सपने में भगवान् शंकर 
का आदेश मिला ," अयोध्या जाओ ,हिंदी में काव्य रचना 
करो ." सपने में मिलने वाला आदेश संभवतः उनकी आत्मा 
के ही बोल थे .दूसरे शब्दों में कहें तो उनसे पहले महर्षि वाल्मीकि
 संस्कृत में रामायण रच चुके थे ,तब हिंदी के उद्धार
 के लिए यह परम आवश्यक था की कविता कर्म हिंदी में 
किया जाय.    राम चरित मानस की रचना के समय तुलसी दास
जी का विरोध करने वालों की संख्या अत्यधिक थी .यहाँ 
तक की उनकी इस महान करती को नष्ट करने के अनेकानेक 
प्रयास किये गए  तब उन्हें यह घोषणा करना पडी की 'मानस '
की  रचना बिना किसी राग -द्वेष के की गई है . इसीलिये 
उन्होंने इस कृति में सभी की विशेषतः दुष्ट जनों एवं अन्य 
धार्मिक गुरुओं ,आचार्यों ,कवियों आदि की वंदना की है .
ताकि वे उनके रचना कर्म में व्यवधान उत्पन्न न करें .
यह निर्विवाद है की गोस्वामी जी को 'मानस 'की रचना 
अनेक मानसिक एवं सामाजिक दबाबों के चलते करना पडी .    
   इतना सब होने पर भी उन्होंने 'राम चरित 




मानस ' में सामाजिक चेतना ,सामाजिक विकास एवं 
सामाजिक संरचना हेतु अपना अप्रतिम योगदान दिया .
इस प्रकार समाज को प्रदत्त यह ग्रन्थ तुलसीदास जी की बहुत 
बड़ी एवं महत्वपूर्ण उपलब्धि है .जिसमें समाज के लिए 
सर्वोच्च  कोटि के आदर्श प्रस्तुत किये गए हैं .परन्तु समाज का यह 
दुर्भाग्य है की महाकवि द्वारा समाज को महान जीवन द्रष्टि  ,
दिशा निर्धेश दिए जाने के बावजूद उन्हें समाज का पथ भ्रष्टक
कहा गया .
                     इसके पीछे किसकी कुत्सित एवं राजनैतिक चाल 

है ,यह सब यहाँ चर्चा का विषय नहीं है वरन जिस कारण से उन 
पर यह आरोप मढा जाता है वह उनके द्वारा लिखित यह चौपाई 
है .:-
'ढोल गवांर सूद्र पशु नारी ,सकल ताड़ना के अधिकारी .'
         इस चौपाई ने समाज के कुछ बुद्धिजीवियों को बौखला 
दिया और जिसके लिए तुलसीदास जी को दण्डित करने हेतु उनके 
द्वारा  'समाज के पथ भ्रष्टक तुलसी दास ' कह कर आरोपित करने 
का कुत्सित प्रयास किया गया .
  उपर्युक्त   चौपाई को पढने पर साधारण अर्थ 





निकलता है की ढोल ,गंवार ,सूद्र ,पशु और नारी प्रताड़ना 
के अधिकारी होते हैं .इसके लिए कवि की जितनी भी भर्त्सना 
की जाए कम होगी .तथा उसका सामाजिक बहिष्कार  उचित 
दंड होगा .परन्तु किसी भी महा कवि या विद्वान लेखक की 
द्रष्टि इतनी संकीर्ण या तुच्छ नहीं हो सकती . उसके द्वारा कहे 
गए शब्दों के मर्म को समझे बिना अर्थ को नहीं समझा जा 
सकता है . कवि का ठीक मूल्यांकन नहीं किया जा सकता .    
        कोई भी रचनाकार साधारण बात को कहने 




के लिए काव्य की रचना नहीं करता  जो साधारण है उसे 
काव्य में कहने का औचित्य ही क्या  ? जो दिखता है 
जो समझ में आता है उससे परे अन्तर्निहित बात का 
और उसके छिपे हुए पहलुओं को सबके सामने लाना 
लेखक ,कवि और पत्रकार का धर्म और कर्म होता है .
कवि का काम गागरमें सागर भरना होता है .वह कभी 
एक शब्द के कई अर्थ प्रयोग में लाता है .औरकभी एक
ही वाक्य से अनेक अर्थ .उदाहरणार्थ -
'सुवरन को खोजत फिरत कवि ,व्यभिचारी चोर .'
यहाँ एक ही शब्द 'सुवरन' (कवि  अच्छे द्रश्यों /शब्द , 
विषयी सुन्दर रूप ,चोर स्वर्ण ) से कवि ,व्यभिचारी और 
चोर का मतलब हल कर लिया गया है .अर्थात कवि 
कभी -कभी असाधारण बात कहने के  लिए साधारण 
बात का सहारा लेता है /ले सकता है .हजारों -हजार 
वर्षों से महापुरुष प्रायः साधारण वाक्यों द्वारा असाधारण 
बात   कहते आये हैं. महा राजा पृथ्वी राज चौहान का किस्सा 

जग जाहिर है .जब मोहम्मद गौरी ने उन्हें अंधा बना दिया ,
तब कविवर चंदवरदाई ने अपनी कविता की दो पंक्तिओं 
के  द्वारा उन्हें संकेत दिया -
' चार हाथ चौबीस गज अंगुल अष्ट प्रमान ,
ता ऊपर सुलतान है मत चूको चौहान '
               पंक्तियों का आशय समझने में उन्होने बिलकुल 
देर नहीं की ,इन्हें सुनते ही नेत्र हीन पृथ्वी राज चौहान ने 
शब्द भेदी बाण चला कर एक ही तीर से मोहम्मद गौरी 
का अंत कर दिया था .
                महा कवि तुलसी दास जी ने भी रामायण में इसी 
बात को दोहराया है .उन्होंने साधारण बात द्वारा असाधारण 
बात कही है .      'राम चरित मानस  में तुलसीदास जी 
ने  कहा है की उन्होंने रामायण की रचना 'स्वान्तः -
सुखाय 'की है .परन्तु ऐसा था क्या ? यदि स्वान्तः 
सुखाय ही उनका उद्देश्य होता तो वह मन ही मन
 काव्य दोहराते ,लिखने की आवश्यकता न होती
और न तब वह महान कृति समाज के सामने आती .
               रामायण के सारे प्रसंग जोड़ने वाले हैं तोड़ने 
वाले नहीं .जाति -पांति का भेद भाव तो कहीं द्रष्टिगोचर 
होता ही नहीं है .भीलनी शबरी के जूठे बेरों को भगवान् 
राम चन्द्र जी चाव पूर्वक खाते हैं .निषाद राज केवट को
 अपने गले लगाते हैं .बंदरों से सीता की खोज करवाते हैं .
शोषित सुग्रीव की रक्षा करते हैं . पेड़ पोधों को जीवित
 मानकर उनसे सीता का पता पूछते  हैं .भाई लक्ष्मण 
को रावण के पास ज्ञान प्राप्त करने भेजते हैं ,विभीषण को 
लंका का राज्य सौंप देते हैं .यह सब क्या महा कवि तुलसी 
दास जी की कुत्सित मानसिकता का द्योतक है ?  फिर उन्हें
पथभ्रष्टक  क्यों कहा जाये ? 
              उनके ऊपर कितने दबाब हैं ? सबल द्वारा जब



निर्बल पर हथिया उठाया जाता है तब यह चौपाई लिखी 
गई - ' ढोल गंवार सूद्र पशु नारी ,सकल ताड़ना के अधिकारी ' 
ये पंक्तियाँ प्रतिरक्षात्मक  हैं .जब तक इनकी सूक्ष्मता से 
व्याख्या नहीं की जायगी .तुलसी दास जी की सामाजिक 
द्रष्टि या उनकी काव्य रचना का उद्देश्य द्रष्टिगोचर नहीं हो 
सकता .वह व्यक्ति जो दुष्टों की वंदना महज इसलिए करता 
है की समाज को एक पारदर्शी  स्वच्छ निर्मल द्रष्टि के साथ 
अच्छी कृतिमिले वह विद्वानों से कृपा करने को कहता है क्यों की वह 


स्वंय को ज्ञानी नहीं मानता ,शास्त्र का ज्ञाता नहीं
 मानता ,शब्द कौशल नहीं जानता फिर भी जो
 कुछ कहा गया है उसको सही द्रष्टि से आकलन कर
 स्थान दिया जाए .
           तुलसी दास जी के इर्द -गिर्द का वातावरण
 बुंदेलखंड का वातावरण है .बांदा ,चित्रकूट ,राजापुर 
और निकटवर्ती क्षेत्र उन्हें प्रभावित करता है .वह यहाँ 
समाज में व्याप्त अव्यवस्थाओं ,कुरीतिओं को दूर करना
 चाहते थे .वह समाज के विकास में 'ढोल' ( मीडिया ) ,जो 
प्रचार का संकेतक है ,'गंवार 'अशिक्षा का द्योतक है ,'शूद्र'
 समाज का सबसे निचला दलित तबका है,' पशु ' के 
बिना  श्वेत  क्रान्ति संभव ही नहीं और 'नारी ' समाज की
 बुनियाद है ,आधारशिला है . इन सभी पाँचों तत्वों को ,
जिनकी हालत तत्समय दयनीय थी . 
अपने लेखन व सोच का विषय बनाना महा कवि


ने श्रेयस्कर माना  क्यों की इनके उद्धार के बिना 
समाज का सर्वोन्मुखी विकास संभव नहीं था .
         चूंकि तुलसीदास जी ने एक शब्द 'ताड़ना '
 का प्रयोग किया है जिसके द्वारा ही इन पाँचों तत्वों का 
शमन किया गया है .मनीषियों ने इसका अर्थ मारने ,
पीटने, दंड देने से लिया .फलतः चौपाई की व्याख्या गलत 
हो गई और समाज में गलत सन्देश प्रसारित हुआ .
        वस्तुतः 'ताड़ना 'शब्द बुन्देली भाषा 
में प्रयुक्त होता आया है .और इसका अर्थ है -देखना ,भांपना ,
देखभाल करना ,नजर रखना आदि .राम चरित मानस 
अनेक भाषाओं का सम्मिश्रण है ,परन्तु प्रयुक्त शब्द का 
अभिप्राय उसकी मूल भाषा के सन्दर्भ में लिया जाना 
अपेक्षित है .ग्रन्थ में अवधी ,उर्दू,ब्रज आदि भाषा का 
प्रयोग भी है .'ताड़ना 'शब्द बुन्देली भाषा का है .


          कवि का मानना था की समाज में परिवर्तन 
के लिए 'मीडिया ' (ढोल ) को शसक्त बनाने की 
आवश्यकता है इसलिए उस पर सतत नजर रखी
जाना चाहिए .अनपढ़ व्यक्ति (गंवार ) को शिक्षित 
किये बिना देश का विकास कठिन है .समाज को आगे 
बढाने के लिए दलित और शोषित वर्ग ( सूद्र ) की 
समुचित देखभाल आवश्यक है .चूंकि पशुयों की देख-
रेख ,उनके आहार -विहार पर ही श्वेत -क्रान्ति निर्भर 
करती है .इसलिए गोस्वामी जी पशुयों की गतिविधियों 
को भांपते रहने (ताड़ना ) की बात कहते हैं .
उनके अनुसार महिलायें (नारी ) भी ताड़ना की अधिकारी 
है क्योंकि जिस समाज में नारी की दशा ठीक और सम्मान -
जनक नहीं होगी ,उस समाज की केन्द्रीय शक्ति है.  नारी 
को दोयम दर्जा देकर नहीं रखा जा सकता .इसलिए नारी
 पर ध्यान देना समाज का पुनीत कर्त्तव्य है .इस प्रकार हम 
देखते हैं की 'ताड़ना 'का आशय विकास या उद्धार से है .

उनके अनुसार महिलायें (नारी ) भी ताड़ना की अधिकारी 
है क्योंकि जिस समाज में नारी की दशा ठीक और सम्मान -
जनक नहीं होगी ,उस समाज की केन्द्रीय शक्ति है.  नारी 
को दोयम दर्जा देकर नहीं रखा जा सकता .इसलिए नारी
 पर ध्यान देना समाज का पुनीत कर्त्तव्य है .इस प्रकार हम 
देखते हैं की 'ताड़ना 'का आशय विकास या उद्धार से है .
  जिस सन्दर्भ में इस चौपाई का प्रयोग 
हुआ है वह है समुद्र द्वारा रास्ता देने का अनुरोध 
न सुनना .क्रोधित होकर राम चन्द्र जी अपना 
धनुष -बाण उठा लेते हैं तब समुद्र अपने पक्ष 
में इस चौपाई का प्रयोग करता है . समुद्र में 
रास्ता बनाकरजाना विकास का प्रतीक है .समुद्र 
ज्ञान  का भी  प्रतीक है .लंका पर आक्रमण की 
तैयारी विकास का मार्ग प्रशस्त करने की तैयारी 
है,वह भी ज्ञान के समुद्र को जीतकर .
   समुद्र ही राम चन्द्र जी को बोध कराता 
है की 'ढोल ,गंवार,सूद्र ,पशु ,नारी  सकल ताड़ना के 
अधिकारी हैं .' अर्थात वह 'सकल 'शब्द का प्रयोग करता 
है .अभिप्राय है की किसी एक के द्वारा नहीं .पाँचों के 
उद्धार या विकास द्वारा ही ज्ञान के समुद्र में रास्ता बनाया 
जा सकता है .समुद्र पर क्रोधित होने से अच्छा है की इनका 
विकास किया जाए ,वरना इस प्रसंग में समुद्र स्वयं क्षमा 
मांग सकता था .इन पाँचों के बारे में कहने का क्या 
आशय था ? यहाँ तुलसीदास जी की सामाजिक द्रष्टि 
उजागर होती है की किसी दुर्बल व्यक्ति पर ध्यान देकर
 उन्हें दूर करना चाहिए .विकास के प्रमुख पांच 
घटक हैं .इनका सकल विकास होना चाहिए ,किसी
 एक का नहीं .   चौपाई में एक और शब्द का प्रयोग हुआ 

है 'अधिकारी ' . यह प्रयोग  मामूली नहीं है जैसा 
विद्वतजन 'योग्यता' के अर्थ में प्रयोग करते हैं .
'ताड़ना'  के 'अधिकारी '-दंड  पाने के योग्य हैं . किन्तु 
संदर्भित स्थान और प्रयक्ति में ऐसा अर्थ कदापि नहीं 
हो सकता क्यों की दंड आने का कोई अधिकार नहीं 
होता है .अधिकारी से तात्पर्य अधिकार रखने वाले से 
है .दंड देने का अधिकार तो हो सकता ,मारने का 
अधिकार हो सकता है ,पिटने का नहीं .शोषित होने 
का  अधिकार  कभी होता है क्या ? सही अर्थों में सकल 
तत्व ढोल (मीडिया ) ,गंवार (अशिक्षित ),सूद्र ( निचला 
 दलित वर्ग ) ,पशु ( दुर्बल पालतू जानवर ) और नारी 
( पीड़ित एवं शोषित महिला वर्ग ) अपने -अपने उद्धार 
का अधिकार रखते हैं .इनका अधिकार इनको मिलना 
चाहिए . कुछ आलोचक और विद्वानों ने 'ताड़ना '
का बुन्देली अर्थ समझे बिना ही ,उसे 'प्रताड़ना '
के करीब मानकर अर्थ का अनर्थ कर दिया ,जबकि
 हिंदी शब्द कोष में कहीं भी 'ताड़ना ' का अर्थ 
'प्रताड़ना ' नहीं दिया गया है .उर्दू में कहा गया 
है की ' नुक्ते के हेर फेर में खुदा जुदा हो गया ' यहाँ 
यह कहावत पूरी तरह चरितार्थ होती है .तुलसी 
दास जी का ह्रदय कितना कोमल था ,यह इस पंक्ति 
से जाहिर है .
' मर्म वचन जब सीता बोला ,
पीपल पात सरिस मन डोला '
             समूर्ण 'राम चरित मानस ' में कहीं भी ऐसा 
प्रसंग नहीं जहां मानवता या मानव मूल्यों  की 
स्थापना में कोताही बरती गई हो .यही कारण है
 की समुद्र की बातें सुनकर श्री राम चन्द्र जी मुस्कराने 
लगते हैं :
' सुनत विनीत वचन अति कह कृपालु  मुस्काई '.
अस्तु ,महा कवि तुलसी दास जी ने सामाजिक 
मर्दायों का पालन  करते हुए ,कुप्रथाओं को तोड़ने
 का प्रयास किया तथा आदर्श राज धर्म ,भक्ति ,त्याग ,
सदाचार  की शिक्षा देने वाला ग्रन्थ रचा है ,विद्वेष -
मूलक नहीं .


2 comments:

  1. Aaj bhee kai log galat matlab nikalte hai aur vivad ki sthiti nirmit karte hai

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  2. जब तुलसीदास अवधी में ग्रंथ की रचना कर रहे थे तो बुंदेली का शब्द ताड़ना घुसाने की क्या जरूरत थी और रही बात उनके ब्राह्मणवादी दृष्टि को नया रूप देने की तो कलई खुल चुकी है कोई फायदा नहीं बिना वजह की व्याख्या का।

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